शनिवार, 17 दिसंबर 2016

नास्तिक -आस्तिक एक ही सिक्के के दो पहलु !

 जिस तरह भारतीय वेदांत दर्शन में सगुन-निर्गुण  की मतभिन्नता और किंचित वस्तुनिष्ठ साम्य भी है  उसी तरह समस्त सभ्य संसारमें आस्तिक-नास्तिक का भेद भी निर्वर्चनीय है।यदि आप आस्तिक हैं तो अच्छी बात है लेकिन मेहरवानी करके अंधश्रद्धा,साम्प्रदायिकता और धार्मिक पाखण्ड से बचें ! यदि आप नास्तिक हैं तो बहुत अच्छी बातहै किन्तु आप सत्य,नैतिकता,संविधान,मानवीय अनुशासन और न्याय के पक्ष का मजबूती से अनुपालन करें !चूँकि आपको यकीनहै कि आप बिना किसी ईश्वरीय सत्ता के सांसारिक चुनौतियों का मुकाबला खुद कर सकते  हैं ,आप महान हैं क्योकि आपको जो कुछ भी करना है सब अपने  मानवीय बुद्धिबल के बूते पर ही करना है।

आस्तिक बनाम नास्तिक का द्वंद और उसकी चर्चा सदियों पुरानी है। पाषाण युग का मुनष्य जब गिरी कन्दराओं में रहता था, तब मूलतः वह न तो नास्तिकथा और न ही वह आस्तिकथा। तब वह अन्य देहधारियों की भाँति सिर्फ थलचर था। जहाँ-जहाँ धरती की जैविक तासीर मनुष्य की जिजीविषा के अनुकूल मिलती गयी ,मानव सभ्यता का वहाँ -वहाँ झंडा लहराने लगा। मनुष्य ने ज्यों ही पैरों पर चलना सीखा और आग का उपयोग सीखा और पहिये का आविष्कार किया त्यों ही उसकी मेधा शक्ति को पंख लग गए। जल्दी ही मनुष्य ने पत्थर के नुकीले हथियार और अन्य प्राणियों को काबू में करने के साधन खोज लिये। आग, पानी,हवा,पेड़-पौधे और पालतू पशुओं की खोज ने मनुष्य को 'नदी-घाटी'सभ्यताओं कीओर गतिशील बना दिया। जहाँ मनुष्य ने कबीलाई समाज में जीना प्रारम्भ किया। यों तो दुनिया भर के समाजों की भाषा,संस्कृति सभ्यता और व्यवस्था के क्रमिक विकास का इतिहास जुदा -जुदा है किन्तु आस्था-अनास्था का द्वंद सभी में एक समान रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर वैदिक काल से ही 'वेदमत' और 'लोकमत' का सतत संघर्ष चलता आ रहा है।

ज्ञान क्या है ? अज्ञान क्या है ? ईश्वर क्या है ? ब्रह्म क्या है ? जीव क्या है ? माया क्या है ? दुःख-सुख का कारण क्या है ? सृष्टि कर्ता कौन है ? मनुष्य को किसकी आराधना करनी चाहिए ? वेद को मानने और तदनुसार यज्ञ उपासना करने वाले को आस्तिक क्यों कहा गया ?और वेदविरुद्ध लोकमतावलम्बी  को नास्तिकक्यों कहा गया ?इन प्रश्नों के उत्तर और विपरीत मतों के द्वंदका यह सिलसिला हजारों साल पुराना । आस्तिक मतावलंबियों का धृढ़ विश्वाश है कि अच्छा और सुखी जीवन जीनेके लिए 'आस्तिक'होना जरूरी है। नास्तिक मत का  विश्वाश है कि मनुष्य भी   धरती के अन्य प्राणियों जैसा ही कुदरती सृजन है। जिस तरह पेड़-पौधों,पशुओं,थलचरों,जलचरों,नभचरों और मानव शिशुओं को आस्तिक-नास्तिक से कोई सरोकार नहीं ,उसी तरह 'मनुष्य योनि'को भी इस बात से कोई मतलब नहीं कि आस्तिक क्या है और नास्तिक क्या है ?

पाश्चात्य नास्तिकों और भारतीय चार्वाक दर्शन के अनुयायियों का सवाल जायज है कि  जब मनुष्य के अलावा
हाथी ,कंगारू,ऊंट ,घोडा गधा, गाय बैल भैंस कुत्ता  ,बिल्ली ,शेर ,साँप ,नेवला ,मयूर ,कोयल ,कौआ,तीतर, तोता , गिद्ध -बाज मगरमच्छ,कछुआ और मछली आस्तिक-नास्तिक नहीं होते तो मनुष्य को आस्तिक-नास्तिक के फेर में क्यों पड़ना चाहिए ? चूँकि आस्तिक-नास्तिक का वर्गीकरण मनुष्य के सिद्धांतों-नियमों से संचालित है अतः यह 'ईश्वर' कृत व्यवस्था नहीं है । यदि यह ईश्वरकृत व्यवस्था होती तो,ईश्वर ऐंसा अन्याय नहीं कदापि नहीं करता कि यह सौगात सिर्फ मनुष्य योनि के हवाले कर देता। अति उन्नत सूचना संचार क्रांति से युक्त २१वीं शताब्दी में भी अधिकांस दुनिया स्वाभाविक रूप से नास्तिक ही है। दक्षिण अफ्रीकी कबीलों में और भारत के सुदूरवर्ती क्षेत्रों के आदिवासियों को इससे कोई मतलब नहीं कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक !

चार्वाक से भी पहले भारतीय प्राच्य दर्शन श्रंखला में 'नास्तिक दर्शन' का उल्लेख बालमीकि रामायण में मिलता है।
चित्रकूट में जब अनुज भरत की याचना को न मानकर श्रीराम ने ,गुरु वशिष्ठ और माताओं को वापिस विदा किया


आमतौर पर अर्धशिक्षित भारतीय युवावर्ग और खासतौर से धर्म-मजहब का घृणास्पद गटर साहित्य पढ़ने वाले साम्प्रदायिक तत्व और अंधराष्ट्रवादी नेताओं की दूषित भाषणबाजी का नित्य प्रातः सेवन करने वाले कूड़ मगज - मंदमति लोग यह मानते हैं कि कम्युनिस्ट अर्थात वामपंथी तो नास्तिक होते हैं। उनके मतानुसार जिस किसी ने अपने हाथोंमें 'हँसिया हथौड़ा' वाला ' लाल झंडा' उठा लिया समझो वह 'नास्तिक'है। उनकी नजर में यदि किसी ने गलतीसे भी 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगा दिया तो समझो वह 'देशद्रोही' है ! 'ब्रिटिश नेशनल अस्मेबली' में 'बम' और पर्चे फेंकते हुए और बादमें फाँसीके तख्तेसे भी शहीद भगतसिंह एवम उनके साथियों ने नारा लगाया था - 'इंकलाब जिंदाबाद'!मुकद्दमेंबाजी के दौरान  जब 'धर्म बनाम आस्था का सवाल उठा तो शहीद भगतसिंह ने बार-बार कहा 'हमारा मकसद मुल्क की आजादी और उसके पश्चात् सर्वहारा वोल्शेविक क्रांति है,धर्म मजहब के नजरिये से मैं नास्तिक हूँ '! नास्तिक शब्द को इतना सम्मान दुनिया में  कभी कहीं नही मिला।

आजादी के बाद भारत के दक्षिणपंथी धर्मभीरु 'हिंदुत्ववादी' लोग  यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि भगतसिंह और उनके साथी वामपंथी' विचारधारा के थे और अपने आपको 'बोल्शेविक' कहते थे ! उन्होंने पूरी शिद्दत से अपने आपको नास्तिक घोषित कियाथा। आजादी के बाद जिनकी रगों में अंगेजों के डीएनए का असर बाकी है, वे लोग 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारेको ही पसन्द नहीं करते। वे भगतसिंह की प्रतिमा पर एक आस्तिक की तरह माल्यार्पण तो करेंगे, किन्तु वे यह स्वीकार नहीं करेंगे कि भगतसिंह 'नास्तिक' थे और वामपंथी कम्युनिस्ट भी थे ! चूँकि इन अमर शहीदों की आराध्य 'भारत माता' थी और उसकी आजादीके लिए उनका त्याग- बलिदान तपस्या थी ,इसलिए वे 'नास्तिक' होते हुए भी राष्ट्रके आराध्य हो गए ! इसी तरह आधुनिक कम्युनिस्टों और वामपंथियों का 'इष्ट' है -सर्वहारा वर्ग को शोषण -उत्पीड़न मुक्त करके एक बेहतर समाज व्यवस्था कायम करना। इसके निमित्त वे जो -जो जन संघर्ष या जनांदोलन करते हैं वह उनकी साधना या तपस्या है। इस महान उद्देश्यमें अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वालों के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक होगा ,यदि  वाकई में उसका अस्तित्व है तो !

भारत ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में पतित व्यक्तियों और 'दवंग' समाजों द्वारा यह कुप्रचारित किया जाता रहा है कि कम्युनिस्ट तो नास्तिक होते हैं। पूँजीपतियों के दलाल  सत्ता में बने रहने के लिए बुर्जुवा धर्मभीरुता का स्वांग रचते रहते हैं। वे लोकतंत्र में चुनावी जीत के लिए, राजनीति में धर्म-मजहबका इस्तेमाल करते रहते हैं ! बुर्जुवा वर्ग की इस कारस्तानी में सहयोग के लिए कुछ हद तक वे भी जिम्मेदार हैं जो अपने आपको वामपंथी कहते हैं। वे धर्म-दर्शन और अध्यात्म का ककहरा भी नहीं जानते और तर्कवादी -भौतिकवादी प्रगतिशील बुद्धिजीवी बन बैठे हैं। तार्किकता,वैज्ञानिकता और मार्क्सवादी द्वंदात्मक भौतिकवाद तो मानवता के लिए बेहतरीन वरदान है। किन्तु कुछ 'प्रगतिशील' लोग अपनी विद्वत्ता प्रदर्शन के बहाने धर्म-मजहब -अध्यात्म के मसलों में नाहक अपनी डेढ़ टाँग घुसेड़ते रहते हैं। वे धर्म-मजहब का अनावश्यक मजाक उड़ाते रहते हैं। उनकी इस नादानी से दुष्ट -  साम्प्रदायिक तत्वों को ताकत मिलती है। और 'धर्मभीरु' जनता 'नास्तिक' क्रांतिकारियों की बनिस्पत पाखण्डी 'आस्तिक' साम्प्रदायिक तत्वों को भरपूर समर्थन तथा वोट देती रहती है।

'नास्तिकता' के नाम पर कम्युनिज्म को बदनाम करने वालों को राजनीति में इसलिए बढ़त हासिल है, क्योंकि  भारतकी अधिकांस गरीब जनता अशिक्षित है। आम आदमीको 'धर्म' की 'अफीम' पसन्द है। जनता इस मजहबी अफीम को दुखोंका निवारणकर्ता मानती है। धर्मभीरु जनता को आसानी से  'हिंदुत्व' ईसाइयत अथवा इस्लाम के नाम पर आसानी से ध्रुवीकृत किया जा सकता है। धर्म-मजहब  के ठेकेदार-स्वामियों,बाबाओं , पूँजीपतियों और उनके दलालों ने गठजोड़ करके न केवल कांग्रेस को बल्कि सम्पूर्ण वामपंथी बिरादरी को हासिये पर धकेल दिया है।  जिस देशके घर-घरमें नित्य शंख -घण्टानाद होता हो ,नमाज -ताजियोंके बहाने सड़कों पर क्रूर शक्ति प्रदर्शन होता  हो ,उसदेश की धर्मभीरु जनताको क्या गरज पडी कि किसी बाबा -स्वामी ,मुल्ला -मौलवी और सरकार से पन्गा ले ? इस मानसिकता की वजह से ही न केवल बंगाल में बल्कि सम्पूर्ण भारतमें संघर्षशील सर्वहारा का मेयार सिकुड़ता ही जा रहा है।इसके लिए वामपंथ द्वारा और खास तौर से प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का धर्म-मजहब पर  अतार्किक कटाक्ष और 'नास्तिकता' का ढोंग जिम्मेदार है !

 देश के मेहनतकशों-किसानों,कर्मचारियों और छात्रों के संघर्षों ,जनआन्दोलनों से वामपंथ की ज्यों ही कुछ ताकत बढ़ती है, त्योंही कुछ  स्वयमभू  वामपंथी नेता ,  प्रगतिशील बुद्धिजीवी उस धर्मनिपेक्ष ताकत रुपी शुद्ध दूधमें 'नास्तिकता' का नीबू निचोड़ देते हैं। उनके  प्रमाद से-  भृष्ट ,बेईमान शोषणकारी जातिवादी,सम्प्रदायवादी, पूँजीवादी और क्षेत्रीय दलों को विजयश्री मिल जाया करती है। इस तरह धर्म -मजहब के नाम पर जनता बार-बार ठगी जाती है। संकीर्णतावादी -कठमुल्लावादी लोग सिर्फ धर्म-मजहब की कतारों में ही नहीं हैं बल्कि वे वामपंथ और 'कम्युनिस्ज्म' की कतारोंमें भी हैं। ऐंसे लोग जनताके सवालों और आर्थिक-सामाजिक मुद्दों पर अच्छी पकड़ रखते हैं ,किन्तु  धर्म -मजहब के मामलों में वे अतीत के'नास्तिकवादी ' खूँटे से बंधे हुए हैं। इस २१वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भी वे  १८वीं सदी के पाश्चात्य सिद्धांतों से  चिपके हुए हैं।

 जो प्रगतिशील विचारक या अध्येता, अरब-यूरोप के मजहब-रिलिजन शब्द का अनुवाद संस्कृत के 'धर्म' में देखते हैं, वे  फ़्रांस,जर्मनी,चीन ,क्यूबा , लातिनी अमेरिकी- सुशिक्षित मेहनतकश आवाम और भारतकी अशिक्षित अपढ़ 'धर्मप्राण'जनता के  फर्क को नहीं समझते। सर्वहारा क्रांति की केवल एक ही ओषधि है।वोल्शेविक या माओवादी चिंतन। इस चिंतन और सोच से की ताकत से ही एक यूनिफार्म समाज में बदलाव या क्रांति को स्वीकृत किया जा सकता है। किन्तु जाति -धर्म के नाम पर बिखरे समाज और सदियों तक गुलाम रहे धर्मभीरु भारत के सर्वहारावर्ग से जब कोई कहता है कि कम्युनिस्ट तो  'नास्तिक' होते हैं ,तो हरावल दस्तोंका केडर भी उनका साथ छोड़ देता है। विगत १० सालों में  पश्चिम बंगाल में यही हुआ है। इसके लिए वे विचारक ,बुद्धिजीवी और चिंतक जिम्मेदार हैं जो अपने आपको बड़े से बड़ा कम्युनिस्ट मानते रहे हैं !

कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवी लेखक -विचारक -धरना आंदोलन और सड़कों का संघर्ष छोड़कर धर्म -मजहब के संवेदनशील विमर्श में अपनी टेडी टांग  घुसेड़ते रहते हैं। आमतौर पर आर्थिक- सामाजिक -राजनैतिक मसलों पर एक कम्युनिस्ट का अध्यन किसी पूँजीवादी अथवा साम्प्रदायिक नेता से  बेहतर होता है।क्योंकि उसकी सोच का वैज्ञानिक आधार होता है। किन्तु जब कभी धर्म-मजहबकी  चर्चा होती है, और यदि वह घोर नास्तिक बनने का ढोंग करता है तो जनता वह भी समझ  जाती है। दूसरी ओर भाववादी भृष्ट लोग भी  प्रचारित करते रहते हैं कि कम्युनिस्ट एवम प्रगतिशील खेमेंमें तो सब नास्तिक ही भरे पड़े हैं।जबकि तथाकथित आस्तिक लोगभी 'नास्तिक' के बारे में कुछ नहीं जानते। कुछ मूर्खोंने तो 'नास्तिक' चार्वाक दर्शन को  मार्क्सवाद से नथ्थी कर डाला है!

वस्तुतः वेदों को नहीं मानने वाला नास्तिक कहा जाता था वास्तव में 'नास्तिक'  वह नहीं जो अनीश्वरवादी है, बल्कि नास्तिक तो वह है जो बाप को बाप और माँ को माँ नहीं समझता। जो कृतघ्न- एहसान फरामोश और परजीवी है  जो समाज में घृणा फैलाता है ,जो जातिवाद की राजनीति करता है ,जो बेईमान है और अनैतिक कर्म करता हैमैं उसे नास्तिक कहता हूं । अपने विवेक ,साहस और परिश्रम से जीवन यापन करता है उसे किसी ईश्वर की वैसे ही जरूरत नहीं जैसे कि दहकते सूरज को किसी अन्य ऊर्जा स्त्रोत से तपन हासिल करने की आवश्यकता नहीं !

कौन आस्तिक है कौन नास्तिक है यह व्यक्तिगत सोच और आचरण का विषय है। कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति ,समाज ,राष्ट्र या विचारधारा के बारे में यह निर्णय नहीं कर सकता कि 'अमुक' व्यक्ति या अमुक विचारधारा वाले लोग नास्तिक हैं या अमुक व्यक्ति और अमुक विचाधारा के लोग आस्तिक हैं।
इस संदर्भ में संस्कृत सुभाषित बहुत प्रसिद्ध है :-
काक : कृष्ण पिक : कृष्ण , कोभेद पिक काकयो :!
वसन्त समय शब्दै : , काक: काक: पिक: पिक: ! !
इसका सुंदर अनुवाद स्वयम बिहारी कवि ने किया है :-
भले-बुरे सब एक से ,जब लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक -पिक ,ऋतु वसन्त के माँहिं ।।
अर्थ :- अच्छा-बुरा ,आस्तिक -नास्तिक सब बराबर होते हैं ,जब तक वे अपने बचन और कर्म का प्रदर्शन नहीं करते। वसन्त के आगमन पर ही मालूम पड़ता है कि कोयल और कौआ में क्या फर्क है ?

यदि कोई कहे कि मैं 'नास्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है,इसमें अपना क्या जाता है ? और यदि कोई कहे कि मैं तो 'आस्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है,इससे तुम्हे क्या फर्क पड़ता है ? वैसे भी जो अपने आपको आस्तिक मानते हैं वे आसाराम,नित्यानंद और तमाम बाबा-बाबियां किस तरह के आस्तिक हैं यह सारा जगत जानता है। जबकि गैरी बाल्डी ,सिकंदर,जूलियस सीजर ,गेलिलियो ,अल्फ़्रेड नोबल ,आइजक न्यूटन डार्विन , रूसो,बाल्टेयर एडिसन,नेल्सन मंडेला ,मार्टिन लूथर किंग ,पेरियार, न्याम्चोमस्की जैसे लाखों नाम हैं जो अपने आपको नास्तिक मानते थे।
भारतीय हिन्दू दर्शन के अनुसार इस जीव जगत में ऐंसा कोई चेतन प्राणी नहीं जिसमें ईश्वर न हो !यह स्वयम भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है !
ईश्वरः सर्वभूतानाम ह्रदयेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन सर्वभूतानि ,यन्त्रारूढानि मायया।। ,,[गीता-अध्याय १८ -श्लोक ६१ ]
अर्थ :-हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों में स्थित है। अर्थात ईश्वर सब में है। जो यह मान लेताहै वह आस्तिक है,जो न माने वो नास्तिक है। लेकिन नहीं मानने वाला जरुरी नहीं कि बुरा आदमी हो और मान लेने वाला जरुरी नहीं कि वह अच्छा आदमी ही होगा !वह रिश्वतखोर भी हो सकता है ,वह बदमाश -आसाराम जैसा लुच्चा भी हो सकता है !
जब कोई व्यक्ति कहे कि ''मैं नास्तिक हूँ '' तो उसे यह श्लोक पढ़ना होगा, यदि वह कुतर्क करे और कहे कि मुझे गीता और श्रीकृष्ण पर ही विश्वाश नहीं ,तो उसे याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण ही दुनिया के सर्वप्रथम नास्तिक थे। उन्होंने ही 'वेद'विरुद्ध यज्ञ ठुकराकर सर्वप्रथम इंद्र की ऐंसी -तैसी की थी। गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा भले ही रूपक हो ,किन्तु उसी रूपक का कथन यह है कि श्रीकृष्ण ने ही सबसे पहले धर्म के आडम्बर-पाखण्ड को त्यागकर -गायों ,नदियों और पर्वतों को इज्जत दी थी। यदि कोई कम्युनिस्ट भी श्रीकृष्ण की तरह का 'नास्तिक ' है तो क्या बुराई है ?
मैं स्वयम न तो नास्तिक हूँ और न आस्तिक ,मुझे श्रीकृष्ण का गीता सन्देश कहीं से भी अवैज्ञानिक और असत्य नहीं लगा। लेकिन बुद्ध का वह बचन जल्दी समझ में गयाकि 'अप्प दीपो भव'' । बुद्ध कहा करते थे ईश्वर है या नहीं इस झमेले में मत पड़ो ''! कार्ल मार्क्स ने भी सिर्फ 'रिलिजन' को अफीम कहा है ,उन्होंने भी बुद्ध की तरह ईश्वर और आत्मा के बारे में कुछ नहीं कहा। मार्क्सने भारतीय दर्शन के खिलाफ भी कभी कुछ नहीं लिखा। बल्कि मार्क्सने वेदों की जमकर तारीफ की है। उन्होंने ऋग्वेद में आदिम साम्यवाद का दर्शन की खोज की है । उन्होंने ही सर्वप्रथम दुनिए को बताया था कि 'वैदिककाल में आदिम साम्यवादी व्यवस्था थी और उसमें वर्णभेद,आर्थिक असमानता नहीं थी '' तथाकथित आस्तिक हिन्दू [ब्राम्हण पुत्र भी ] वेदों के दो चार सूत्र और मन्त्र पढ़कर साम्प्रदायिकता की राजनीति करने लगते हैं। वे यदि आस्तिक वेदपाठी प्रकांड पण्डित न भी हो किन्तु इस श्लोक को तो याद कर ही ले।
''अन्यनयाश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषाम नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहम।। '' [गीता अध्याय ९ श्लोक-२२]
श्रीराम तिवारी

भारत के अधिकान्स हिंदी भाषी लोग उर्दू के 'खिलाफत'शब्द का बेहद दुरूपयोग करते रहते हैं। दरसल इस 'खिलाफत' शब्द का वास्तविक अर्थ है 'इस्लामिक संसार के प्रमुख की सत्ता'! सार्वजानिक तौर पर भारतीय जन मानस द्वारा इस 'खिलाफत' शब्द का सबसे पहले प्रयोग १९१९ के खिलाफत आंदोलन के दौरान  किया गया था। तब इस शब्द को उसके सही अर्थ में प्रयोग किया गया था। किन्तु वर्तमान दौर में  'इस्लामिक दुनिया' का कोईभी व्यक्ति सत्ता के केंद्र में नहीं है अर्थात इस्लामिक'खलीफा' कोई नहीं है ,इसलिए दुनिया में 'खिलाफत' का भी कोई अस्तित्व ही नहीं है। फिर भी भाई लोग इस 'खिलाफत' शब्द की आये दिन ऐंसी -तैसी करते रहते हैं।अधिकांस जब पढ़े-लिख लोग इस शब्द को 'राजनैतिक विरोध ' या 'आलोचना' के पर्यायबाची रूप में इस्तेमाल करते हैं तो बड़ी कोफ़्त होती है। विरोध का वास्तविक उर्दू शब्द है 'मुखालफत' किन्तु इस शब्द को केवल वही इस्तेमाल करते हैं जो उर्दू जानते हैं।


जिस तरह अनाड़ियों नई खिलाफत शब्द की दुर्गति की है ,उसी तरह कुछ 'काम पढ़े लिखे 'लोगों ने संस्कृत के धर्म,अधर्म,आस्तिक,नास्तिक इत्यादि  शब्दोंका कबाड़ा कर डाला है। विद्वान् लोग जानते हैं कि संस्कृत के 'धर्म' शब्द का वास्तविक अर्थ रिलिजन या मजहब नहीं है। उसी तरह नास्तिक का सटीक अर्थ 'काफ़िर' अथवा  यथेस्ट [Atheist] नहीं है। इसलिए इस्लाम ,यहूदी या ईसाई मजहबों में 'संस्कृत के 'धर्म' अथवा  'नास्तिक' शब्द का कोई विकल्प नहीं है। यदि कोई शब्द पाया गया तो उसका अर्थ 'वेद विरुद्ध' वाली अवधारणा से बिलकुल पृथक होगा। भारतीय 'वैदिक वांग्मय' के अनुसार जो वेदविरुद्ध है वही नास्तिक है। इस सिद्धान्त के अनुसार सिर्फ भारतीय साँख्य ,न्याय,वैशेषिक इत्यादि दर्शन और जैन, बौद्ध ,सिख ,चार्वाक मतावलंबी को नास्तिक ही होना चाहिए। इस्लाम  ईसाई अथवा अन्य सेमेटिक मजहबों का इस शब से कोई सरोकार नहीं। भारत में चार्वाक मतावलम्बियों और अर्वाचीन साम्यवादियों ,समाजवादियों या रेशनलिस्टों के अलावा कोई भी अपने आपको नास्तिक नहीं मानता।

साम्यवादी दलों मेंभी सिर्फ उच्च शिक्षित नेतत्वकारी लोग ही दावा करते हैं कि वे 'नास्तिक' हैं। किन्तु वे नास्तिक शब्दको 'मार्क्सवाद' की वैज्ञानिक भौतिकवादी व्याख्या के 'अवैदिक' संदर्भ में देखते हैं। वास्तविक नास्तिक वेभी नहीं हैं। उनके नेतत्व में संगठित सर्वहारावर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा न तो आस्तिक है और न ही नास्तिक है। जो शख्स दो वक्त की रोटी की जुगाड़  में रात-दिन खेतों-कारखानों में पिस रहा हो ,जिसे किसी बाबा गुरु घण्टाल के क़दमों में शीश नवाने का अवसर ही न मिलता हो ,जो मंदिर -मस्जिद के अंदर ही न जा पाता हो ,उसे नास्तिक  कहो या आस्तिक कोई फर्क नहीं पड़ता।

जो जेब कतरे,लुच्चे -लफंगे गली मोहल्ले में मटकी फोड़ या होली की हुल्लड़ करते हैं ,भगवा - हरा दुपट्टा गले में बांधकर कोई गणेशोत्सव ,कोई करबला वाली छाती कूट रस्म ऐडा करता हो और बाद में रातको चेन स्नेचिंग और सट्टाखोरी ,जुआखोरी करते हों वे सिर्फ इसलिए आस्तिक नहीं हो जाते कि वे आसाराम जैसे बलातकारी की पैरवी करते हैं, मजहब के नाम पर 'जेहाद'की आग में जलते हैं। देश और दुनियाका  मेहनतकश मजदूर -किसान सिर्फ और सिर्फ 'सर्वहारा' है। उसे नास्तिक-आस्तिक शब्दों  की जरूरत ही नहीं है।

ऋगवेद के अस्ति -नास्ति प्रत्यय से उतपन्न आस्तिक एवम नास्तिक शब्दों का विस्तृत विमर्श संस्कृत वांगमय में और भारतीय प्राच्य 'दर्शन' में भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। उपनिष्दकाल में यह सिद्धांत प्रचलन में आया कि जो 'वेद' विरुद्ध है वह नास्तिक है।  ! नास्तिक -आस्तिक एक ही सिक्के के दो पहलु !
जब कोई व्यक्ति धर्म-मजहब ,आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी कपोलकल्पित साहित्य और 'ईश्वर'के अस्तित्व परआस्था -अंधश्रद्धा रखे,कोई सवाल नहीं करे- बल्कि धर्मगुरु और शास्त्र जो कहे उसे सत्य मानकर चले तो यह 'आस्तिक' का लक्षण है।जब कोई व्यक्ति कहे कि 'मैं जो कह रहा हूँ वही सत्य है' तो यह अभिमानी का लक्षण है !जब कोई व्यक्ति कहे कि 'दूसरों का अनिष्ट किये बिना ,किसी को हानि पहुंचाए बिना,तर्क की कसौटी पर जो सापेक्ष सत्य सिद्ध होगा-  मैं उसे ही स्वीकार करूँगा'  तो यह वैज्ञानिक का लक्षण है ! किसी को हानि पहुंचाए बिना,पाखण्ड और चमत्कार के झांसे में आये बिना जो व्यक्ति कहे कि 'मैं हमेशा न्याय का पक्षधर रहूँगा' तो यह 'स्वाभिमानी'का लक्षण है ! जो शख्श तर्कवादी, स्वाभिमानी ,विज्ञानवादी तथा  मानवतावादी होता है उसे ही 'नास्तिक' कहते हैं। जिस तरह यह सच है कि संसारके अधिकांस वैज्ञानिक अनुसन्धानकर्ता नास्तिक  थे। उसी तरह यह भी सच है कि संसार में सत्य ,अहिंसा,क्षमा ,नैतिकता, इंसानियत और तमाम मानवीय मूल्यों की स्थापना 'आस्तिक' मनुष्यों द्वारा की गई  है।

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